पुरुषार्थ की वैचारिकता व औचित्य
Author(s): परितोष कड़ेला
Abstract: प्राचीन हिंदू विचारधारा या विस्तृत अर्थ में प्राचीन भारतीय संस्कृति में भौतिक व आध्यात्मिक दोनों विचारधाराओं का सम्मिश्रण,सामंजस्य और अपूर्व संबंध में देखने को मिलता है| भारतीय संस्कृति का मानना है कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव संसार में भौतिक जीवन में तथा संयम, नियम और आदर्श से परिपूर्ण आध्यात्मिक जीवन में कोई स्थाई विभाजन और विरोध नहीं है लेकिन भोग सर्वस्य जीवन को ही पूर्ण अपना लेना उचित नहीं है क्योंकि यह सब सांसारिक ऐश्वर्य अस्थिर है यह धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगा और इसके पश्चात इस जीवन को आध्यात्मिक उन्नति में लगाना आवश्यक है ताकि परलोक में सुख मिले अथवा आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति हो | प्राचीन कालीन भारतीय विचारकों ने उपयुक्त दोनों विचारधारा में संबंध में स्थापित कर मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक भौतिक और नैतिक दृष्टि से उन्नत करने के निमित्त पुरुषार्थ के नाम से अपने दार्शनिक विचारों की नियोजना और व्याख्या की |
पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा के चार भाग हैं - यह है धर्म अर्थ काम और मोक्ष |
पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म अर्थ काम मोक्ष अपनी संतुलित अवस्था में आदर्श व्यक्तित्व या जीवन का प्रतीक है | श्रुति युग से पुरुषार्थ रूपी धारा आज तक अनंत रूप से प्रभाव मान है| इस आदर्श के अनुसार मानव जीवन केवल अधिकारों को ही नहीं बल्कि कर्तव्यों को भी सूचित करता है तथा त्यागमय कर्तव्यमय व अनुशासित जीवन का प्रतिनिधित्व करता है | इन सब के महत्वपूर्ण समन्वय से जीवन की परम प्राप्ति सरल होती है| अनुशासन और कर्तव्य मानव जीवन का धर्म है उसका ही अर्थ और काम पक्ष तथा परम प्राप्ति को मोक्ष कहा गया है इस तरह मानव जीवन के सर्वांगीण व् संतुलित विकास के लिए भारतीय मनीषियों ने जिस चिंतना को अंगीकार किया उसे पुरुषार्थ चतुष्टय के नाम से जाना जाता है |:
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परितोष कड़ेला. पुरुषार्थ की वैचारिकता व औचित्य. Int J Hist 2020;2(2):149-155.