Abstract: शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को आदिकाल से ही प्रभावित करती आयी है और मनुष्य ने शिक्षा के द्वारा अपने ही समाज और संस्कृति विकास किया है। जिसका परिणाम आज का आधुनिक समाज है। शिक्षा समय, समाज, संस्कृति और देश की भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार बदलती रही है किन्तु आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गयी है, जहाँ हम शिक्षा का अर्थ किसी स्कूल कॉलेज या विश्वविद्यालय में जाकर विभिन्न विषयों की दस या बीस-तीस पुस्तकें अध्यापकों से पढ़ लेना ही समझते हैं। जिस व्यक्ति ने इस नियत पाठ्यक्रम के अनुसार जितनी अधिक पुस्तकें पढ़ी हैं और जितनी ऊँची परीक्षाएँ पास की हैं वह हमारी .ष्टि में उतना ही अधिक शिक्षित या विद्वान है। आजकल लोगों का यही विचार है कि जो व्यक्ति अक्षरों से परिचित नहीं है और एक या कई भाषाओं को लिखने पढ़ने की योग्यता नहीं रखता वह कदापि शिक्षित नहीं कहा जा सकता है। परन्तु हमारी प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था ऐसी न थी उसमें विद्यार्थियों को केवल किसी एक विद्या की शिक्षा नहीं दी जाती थी बल्कि उन्हें शिक्षा शारीरिक मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों के विकास की शिक्षा दी जाती थी जिससे वे अपने जीवन में किसी भी कठिनाई का सामना कर सकें किन्तु आज की शिक्षा ऐसा करने में असमर्थ है। बी. सरन ने कहा है की, चाहे कितने भी अच्छे दिन क्यों न आये तब तक मातृभूमि का मुखमण्डल न चमकेगा जब तक की भारत की संस्कृति बोल न उठेगी जंगलांे के गुरूकुलांे मंे निवास करने वाले ऋषियों की भाषा में जागकर न कहेगी की उम्र अलौकिक संदेश और शिक्षा को फैलाओ गुरूकुल प्रणाली के सिद्धांत सदैव और सर्वत्र ग्रहणीय है प्रत्येक देश और प्रत्येक परिस्थिति में आज हमारी शिक्षा किसी अधेरी गुफा में अपने रास्ते से भटक गयी है। ऐसा क्यों? अतः हमें अपनी आधुनिक शिक्षा में कुछ दिशा एवं दशा परिवर्तन करने की आवश्यकता है। जिसे हम इस लेख के माध्यम से दृष्टिपादित करने का प्रयत्न कर रहे है।