दक्षिण-दक्षिण सहयोग की अवधारणा एवं समकालीन दौर में भूमिकाः चुनौतियाँ एवं समाधार
Author(s): भरत कुमार
Abstract: द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात जिस व्यापार व मुद्रा व्यवस्था का निर्माण किया गया वह एक उदारवादी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करती है, जिसमें गैट, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक ने अपनी संस्थागत भूमिका निभाई। इस व्यवस्था में वैश्विक स्तर पर विकासशील देश विकसित देशों द्वारा उपेक्षित किए गये। यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा व व्यापार व्यवस्थाओं के प्रबंधन के लिए ब्रेटनवुड्स व्यवस्था की स्थापना की गई। इस व्यवस्था ने बड़े-बड़े औद्योगिक राष्ट्रों के मध्य वित्तीय व वाणिज्यिक संबंध बनाने के लिए नियमों का निर्माण किया परंतु ये व्यवस्थाएं विकसित देशों का विकासशील देशों के शोषण का हथियार बनने लगी। विकसित एवं विकासशील देशों में विषमता की रेखा बढ़ती चली गयी। असमान व्यापारिक विनिमय द्वारा विकसित देशों ने विकासशील देशों के बाजारों में अपनी जड़े जमा ली और आर्थिक प्रक्रियाआंे को संस्थागत स्वरूप देकर विकसित देश उनका शोषण करने लगे। परिणामतः विकासशील देशों ने नवीन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग की। दूसरी ओर विकसित देश स्थापित मजबूत आर्थिक व्यवस्था व अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों में अपनी भूमिका को कम करने के लिए तैयार नहीं थे। विकसित देशों ने नवीन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को स्वयं के लिए हानिकारक माना। नवीन अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकता के साथ ही उत्तर-दक्षिण विवाद भी शुरू हो गया, जिसके प्रत्युत्तर में दक्षिण-दक्षिण संवाद व सहयोग की भी आवश्यकता हुई।
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भरत कुमार. दक्षिण-दक्षिण सहयोग की अवधारणा एवं समकालीन दौर में भूमिकाः चुनौतियाँ एवं समाधार. Int J Hist 2020;2(1):60-63.