गुप्तोत्तर भारत में विदेशी आक्रमणों का सामाजिक ढाँचे पर प्रभाव
Author(s): अमोल कुमार
Abstract: गुप्तोत्तर काल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण संक्रमण काल के रूप में देखा जाता है। यह वह युग था जब गुप्त साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी और उसकी राजनीतिक, प्रशासनिक और सैन्य संरचना बिखरने लगी थी। चंद्रगुप्त द्वितीय और समुद्रगुप्त जैसे शक्तिशाली शासकों की मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार की लड़ाइयों, आर्थिक संकटों और प्रादेशिक सरदारों की महत्वाकांक्षाओं के कारण गुप्त साम्राज्य का क्षरण हुआ और परिणामस्वरूप उत्तरी भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया।राजनीतिक विकेंद्रीकरण और केंद्रीय सत्ता की दुर्बलता ने देश की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं को असुरक्षित बना दिया। इसी अस्थिरता और सत्ता के रिक्त स्थान ने बाह्य शक्तियों जैसे हूण, शक, कुषाण, यवन आदि को भारत की भूमि में प्रवेश करने और राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से प्रभाव स्थापित करने का सुअवसर प्रदान किया। इनमें से अधिकांश जातियाँ मूलतः मध्य एशिया, सोग्डिया, बैक्ट्रिया और स्किथियन प्रदेशों से थीं, जिनका सामाजिक और धार्मिक ताना-बाना भारतीय परंपराओं से भिन्न था।इन आक्रमणों का प्रभाव केवल सैन्य संघर्षों तक सीमित नहीं रहा। वास्तव में, इन विदेशी जातियों के आक्रमणों और भारत में बसने से भारतीय समाज के अनेक आयामों में गहरे और दूरगामी परिवर्तन हुए। सामाजिक स्तर पर वर्ण व्यवस्था की गतिशीलता, धार्मिक विविधता और सहिष्णुता की परीक्षा, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जनजातीय समुदायों की मुख्यधारा में सम्मिलिति, और अर्थव्यवस्था की संरचना तक इन बाह्य शक्तियों के प्रवेश ने चुनौती पेश की।इन जातियों ने कुछ क्षेत्रों में अस्थायी तो कहीं स्थायी शासन स्थापित किया और धीरे-धीरे भारतीय परंपराओं को अपनाते हुए स्थानीय समाज में घुल-मिल गए। लेकिन उनकी मूल जीवनशैली, सैन्य प्रवृत्ति, सांस्कृतिक विशेषताएँ, और राज्य प्रशासन की प्रणाली भारतीय समाज की पारंपरिक धारणाओं से टकराई भी। इसका परिणाम सामाजिक संरचना की पुनर्व्याख्या, जातीय सम्मिश्रण और धार्मिक पुनर्संरचना के रूप में सामने आया।इस शोधपत्र का उद्देश्य गुप्तोत्तर भारत में विदेशी आक्रमणों के इस गहन प्रभाव का सम्यक और संतुलित विश्लेषण करना है। विशेष रूप से यह लेख यह समझने का प्रयास करेगा कि कैसे हूण, शक, कुषाण जैसे आक्रमणकारी केवल शासक नहीं रहे, बल्कि समाज के विविध अंगों में परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में भी कार्यरत हुए। यह शोध इस दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है कि गुप्तोत्तर काल को सामान्यतः एक ‘अंधकार युग’ माना जाता है, किंतु वस्तुतः यह काल सामाजिक परिवर्तन, अंतःसंवाद और सांस्कृतिक समावेशन का प्रतीक भी था।
DOI: 10.22271/27069109.2025.v7.i6a.428Pages: 01-04 | Views: 88 | Downloads: 46Download Full Article: Click Here
How to cite this article:
अमोल कुमार.
गुप्तोत्तर भारत में विदेशी आक्रमणों का सामाजिक ढाँचे पर प्रभाव. Int J Hist 2025;7(6):01-04. DOI:
10.22271/27069109.2025.v7.i6a.428