पाल काल में बौद्ध संस्कृति का विकास तथा शिल्प एवं कला पर उनके प्रभाव का विश्लेषण
Author(s): सत्यवीर कुमार पासवान
Abstract: भारतवर्ष के इतिहास में पाल वंश का कालखंड (लगभग 750 ई. से 1150 ई.) सांस्कृतिक, धार्मिक तथा कलात्मक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह काल मुख्यतः पूर्वी भारत - विशेषतः बिहार और बंगाल - में फैला हुआ था, जहाँ बौद्ध धर्म ने न केवल धार्मिक उन्नति की बल्कि उसने कला, स्थापत्य, मूर्तिकला, शिक्षा और दर्शन के क्षेत्रों में भी गहरा प्रभाव डाला। हर्षवर्धन के पतन के बाद जब उत्तर भारत में राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त थी, तब पाल शासकों ने एक सुदृढ़ साम्राज्य की स्थापना कर नालंदा, विक्रमशिला, सोमपुर, और जगदल्ला जैसे बौद्ध शिक्षा संस्थानों को संरक्षण प्रदान किया। इन संस्थानों के माध्यम से बौद्ध संस्कृति ने अपनी गहराई, व्यापकता और कलात्मक परंपरा को पुनः स्थापित किया। पाल शासकों ने विशेषकर महायान और वज्रयान बौद्ध धर्म को संरक्षित एवं प्रोत्साहित किया, जिसके प्रभाव से बौद्ध धर्म के तांत्रिक स्वरूप का विकास हुआ और साथ ही मूर्तिकला तथा स्थापत्यकला की एक विशिष्ट पाल शैली का जन्म हुआ। यही कारण है कि पाल काल को ‘बौद्ध पुनर्जागरण’ का काल भी कहा जाता है, जिसने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका, बर्मा और दक्षिण-पूर्व एशिया तक भारतीय बौद्ध कलात्मक प्रभाव को पहुँचाया। इस काल की कला और शिल्प ने न केवल धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की, बल्कि वह उस काल के सामाजिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक जीवन का भी सजीव दस्तावेज बन गई।
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How to cite this article:
सत्यवीर कुमार पासवान. पाल काल में बौद्ध संस्कृति का विकास तथा शिल्प एवं कला पर उनके प्रभाव का विश्लेषण. Int J Hist 2025;7(5):184-187.