ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक ढांचे का विकास: नीतियाँ, परिवर्तन और प्रभाव
Author(s): कुलदीप मंडल
Abstract: यह शोध लेख ब्रिटिश भारत के दौरान हुए प्रशासनिक ढांचे के विकास, उसकी नीतियों, सुधारों तथा उनके भारतीय समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर पड़े दूरगामी प्रभावों का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करता है । ब्रिटिश शासन की प्रशासनिक व्यवस्था केवल शासन की तकनीकी प्रणाली नहीं थी, बल्कि यह एक सुसंगठित औपनिवेशिक नीति का वह उपकरण थी जिसके माध्यम से भारत के विशाल भूभाग पर राजनीतिक नियंत्रण, आर्थिक दोहन और सांस्कृतिक प्रभुत्व स्थापित किया गया । यह शोध लेख प्रशासनिक ढांचे के ऐतिहासिक विकास को तीन प्रमुख चरणों में विभाजित करता है कंपनी शासन काल, ब्रिटिश क्राउन शासन काल (1858-1947), और उत्तर औपनिवेशिक प्रभाव काल, जिससे प्रशासनिक परिवर्तन की निरंतरता और उसके परिणामों को समझा जा सके । प्रारंभिक चरण में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासनिक तंत्र मुख्यतः व्यापारिक उद्देश्यों और राजस्व संग्रह की आवश्यकता पर आधारित था । कंपनी ने भारत में शासन की बुनियादी इकाइयों के रूप में जिला प्रशासन, दीवानी एवं फौजदारी न्यायालयों और राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति जैसी व्यवस्थाओं की शुरुआत की ।1
वॉरेन हेस्टिंग्स, कॉर्नवालिस और लॉर्ड वेलेजली जैसे गवर्नर-जनरल्स ने इस काल में प्रशासनिक नियंत्रण को व्यवस्थित करने के लिए कई सुधार किए, जिनसे भारतीय नौकरशाही और न्यायिक ढांचे की प्रारंभिक नींव रखी गई । 1857 के महान विद्रोह के पश्चात, 1858 में शासन का अधिकार ब्रिटिश क्राउन को स्थानांतरित किया गया, जिससे भारतीय प्रशासन का चरित्र पूरी तरह परिवर्तित हो गया । क्राउन शासन के अंतर्गत एक केंद्रीकृत और अनुशासित प्रशासनिक ढांचे का निर्माण हुआ, जिसमें वायसराय, सचिव राज्य, और सिविल सेवा जैसी संस्थाओं ने मुख्य भूमिका निभाई । भारतीय सिविल सेवा ब्रिटिश शासन की “स्टील फ्रेम” कही जाती थी, जिसने औपनिवेशिक शासन की रीढ़ के रूप में कार्य किया । इस काल में न्यायिक सुधार, पुलिस प्रणाली, भूमि राजस्व नीति, शिक्षा नीति और स्थानीय स्वशासन की अवधारणा का विकास हुआ, जिसने भारतीय प्रशासन को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया ।2
हालाँकि इन सुधारों ने शासन व्यवस्था में दक्षता और संगठनात्मक स्थायित्व लाया, लेकिन इनका मूल उद्देश्य भारतीय जनहित नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा करना था । भूमि राजस्व प्रणाली के माध्यम से कृषि अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश औद्योगिक पूँजीवाद के अनुरूप ढाला गया; शिक्षा प्रणाली ने ब्रिटिश मूल्य और संस्कृति को फैलाने का कार्य किया; जबकि न्यायिक सुधारों ने ब्रिटिश कानून को भारतीय समाज पर थोप दिया । परिणामस्वरूप, भारतीय समाज में नई वर्ग संरचनाएँ, सामाजिक असमानताएँ और आर्थिक विषमताएँ उत्पन्न हुईं । इस शोध लेख में न केवल प्रशासनिक नीतियों और उनके ढांचागत विकास का विश्लेषण किया गया है, बल्कि यह भी देखा गया है कि कैसे इन नीतियों ने आधुनिक भारत के शासन तंत्र की नींव रखी । भारतीय नौकरशाही, न्याय व्यवस्था, और राजस्व प्रशासन में आज भी ब्रिटिश कालीन प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं । इसके अतिरिक्त, लेख यह भी प्रतिपादित करता है कि ब्रिटिश प्रशासनिक विरासत ने स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक प्रशासनिक ढांचे को दिशा तो दी, परंतु साथ ही औपनिवेशिक मानसिकता और केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को भी स्थायी रूप से स्थापित किया । इस प्रकार, यह शोध लेख ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक ढांचे के विकास को व्यापारिक नियंत्रण से आधुनिक नौकरशाही तक की एक लंबी ऐतिहासिक यात्रा के रूप में प्रस्तुत करता है । यह न केवल औपनिवेशिक शासन की प्रशासनिक नीतियों के विश्लेषण का प्रयास है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार इन नीतियों ने भारतीय समाज, शासन और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित किया और आज के भारत के प्रशासनिक ढांचे की ऐतिहासिक जड़ों को स्पष्ट किया ।3
DOI: 10.22271/27069109.2025.v7.i10b.543Pages: 110-114 | Views: 1823 | Downloads: 1373Download Full Article: Click Here
How to cite this article:
कुलदीप मंडल.
ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक ढांचे का विकास: नीतियाँ, परिवर्तन और प्रभाव. Int J Hist 2025;7(10):110-114. DOI:
10.22271/27069109.2025.v7.i10b.543